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मंगलवार, सितंबर 20, 2011

उससे जो रुखसत की घडी थी



ना जाने कैसी अजीब बड़ी थी 
उससे जो रुखसत की घडी थी 

मेरे बगैर उदास ना रहना तुम 
शर्त उसने तो रख दी कड़ी थी 

इक तरफ उसकी ख़ुशी तो थी 
इधर दिल को अपनी पड़ी थी 

आंसुओं का सैलाब थमा नहीं 
जबके पूरी अभी रात खड़ी थी 

कब तलक अश्क पैहम थमते
चश्म तो बस खामोश अड़ी थी 

सुर्ख शबनम हमारी देख कर 
सहर उस शब् से खूब लड़ी थी

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